वि.सं. 2068 के लगभग एक विशाल राज्य में एक धींगा वंश का शासन था ।धींगा वंश लगभग सौ वर्षों से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से राज्य संभाले था । तत्कालीन महारानी की नीति अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने की थी ।
महारानी ने सिंहासन पर मूकेश्वर नामक दिव्य दृष्टा को बैठा रखा था । वह देखता तो सब कुछ था करता कुछ नहीं था । सभी निर्णय महारानी ही लिया करती थी । राज्य विशाल था, उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ और सभी जगह एक ही राज चलता था धींगा वंश का राज ।
एक समय की बात है राज्य के युवराज ने एक महायज्ञ करने का प्रस्ताव रखा, जिसे अश्वमेध यज्ञ कहते हैं । इस यज्ञ में एक घोडा छोड़ दिया जाता है और जहाँ जहाँ घोडा जाता है उसके पीछे एक सेना जाती है ।जिस राज्य में घोडा
पहुँचता है, वहां का राजा या तो घोड़े को नमन करके यज्ञ करने वाले का
आधिपत्य स्वीकार लेता है या युद्ध कर के परास्त करने पर स्वयं अधिपति बन जाता । महामंत्री शून्यभट्ट ने कहा युवराज हमारा आधिपत्य तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पहले से समस्त क्षेत्रों और दिशाओं में है यह यज्ञ करना ही क्यों है?
इससे तो हमे शून्य ही प्राप्त होगा |
अपने शून्य जैसे मुख पर शून्य जैसी भाव भंगिमा बनाकर शून्य मे डूब जाने वाले शून्यभट्ट ने एक बार शून्य की खोज की थी | तब से उनका नाम शून्यभट्ट पड़ा था | चाँदनी चौक के तले हुए पराठे और जमा मस्ज़िद की गली के कबाब खाकर एक बड़े से शून्य के आकार की देह बड़ी जटिलता से प्राप्त की थी |
अत्यंत न्याय प्रिय थे शून्यभट्ट | ये न्यायालयों को रात्रि के किसी भी प्रहर मे खुलवाने की विद्या जानते थे | यहाँ तक कि बड़े बड़े न्यायाधीशों को केवल अपनी विचार शक्ति (टेलीपैथी)के द्वारा संदेश भिजवा कर भी न्याय प्राप्त कर लेते थे | किसी भी प्रकार का दुराचारी , देशद्रोही, दुष्ट ,
दुरात्मा हो ये उसको न्याय दिलाए बिना नही रहते|न जाने कितनो को इन्होने दुर्दिन से बचाया|
शून्यभट्ट ने एक बार षड्यंत्र रचा, न्याय के तराजू मे वंशरक्षा के प्रण की चुंबक एक पलड़े मे चिपका कर न्याय को पाना चाहते थे|किंतु वही चुंबक उनके मुँह पर दे मारा गया और उन्हे पुनः शून्य मिला था |
उनके बड़े दुर्दिन चल रहे थे |
युवराज ने कहा हम थोडा मजा लेना चाहते हैं, और राज्य और दृढ करना है, जो बीच बीच में दो चार क्षेत्र हैं लगे हाथ उनपर भी अधिकार जमाना है।
व्यर्थमंत्री मरबदांची ने कहा कीजिये अवश्य कीजिये अभी तो खजाने की कमी नहीं है, कोषागार से पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा।
युवराज चींवि एक अत्यंत रहस्यपूर्ण व्यक्ति था । कोई इस व्यक्ति को अभी तक समझ नहीं सका था। युवराज कभी कभी इस प्रकार की बात करता कि वह सबके हास्य का पात्र बनता । उससे उत्तर की बात करो तो पश्चिम कहता , नीति की बात करो तो सीटी की बात करता । शिक्षा की बात करो तो रिक्शा की बात करता था।
उसके प्रशंसकों को लगता कि वह छायावादी विनोद कर रहा है और वे उसमे भी कोई गूढ़ अर्थ ढूंढ कर उसकी वाह वाही कर उठते । उसके कुछ विशेष चाटुकार थे ।
महिषी वील्लप तो चींवि के छींक ध्वनि से अपान वायु प्रावह कृत नाद तक को क्यूट की संज्ञा देती थी । महिषी का चींवि के प्रति विशेष प्रेम था ।
चींवि को समझना बहुत ही जटिल कार्य था, वह स्वयं भी कहता फिरता कि वह अज्ञानी है । कुछ लोग यह समझते कि वह नम्रतावश यह कहता है और उसकी वाहवाही करते । किन्तु अधिकतर लोग समझते वह सत्य बोल रहा है ।
लोग उसके नाम से बहुत विनोद करते । विनोद से उपहास बनने में समय नहीं लगता ।
सदा राजमहल में रहा, राजमहल में बढ़ा और आधी सदी तक राजमहल मे ही पड़ा रहा । जब धरती पर रहने वाले लोग , जीवित ही धरती मे धंसते जाते तब उसका जन्मोत्सव आकाश में मनाया जाता । उसने किसी विद्या को प्राप्त किया या कोई विद्या उसको प्राप्त करके धन्य हो गयी यह तय कर पाना कठिन है ।
पांच वर्ष के होने पर उसकी मित्रता ज्ञान और विवेक से हुई । ज्ञान और विवेक उसके होने भर से इतने प्रभावित थे कि वे स्तब्ध रह गए । चींवि पांच से पचास वर्ष का हो गया, किन्तु उसके मित्र ज्ञान और विवेक अब तक भूतकाल में अटके रहे । वे कभी पांच वर्ष से आगे बढ़ ही नहीं पाये ।
चींवि ने दरिद्र और दारिद्र्य को किसी संग्रहालय की वस्तु की तरह ही देखा जितना कि उसे दिखाया गया । वह समझता रहा कि उसके राज्य के सभी लोग दरिद्र हैं और दरिद्रता एक रोग । इस रोग का निदान एक बार उसकी दादी महारानी ने "दारिद्र्य नाशं भवतु" के महामंत्र से करने का प्रयत्न किया ।
परंतु यह रोग फैलता चला गया ।
उन्होंने मन्त्र तो सीखा पर मन्त्र को सिद्ध नहीं किया । जाप तो किया परंतु मन्त्र के सफल होने के लिए आवश्यक क्रिया नहीं की । उन्होंने दरिद्रता का
नाश करते करते दरिद्र के नाश के पथ को चुन लिया । इसी के चलते चींवि दरिद्रता की छाया से दूर रहा ।
धींगा वंश को लगता था की दरिद्रता ही इस राज्य की पहचान हैं । इनके एक पूर्वज तो अन्य राज्यों के राजपुरुषों के मध्य सर्पविदों को दिखा कर कहते ये देखो, ये मेरा राज्य है | अन्य राज्यों में यह बात फ़ैल गयी कि वास्तव में यह भूमि सर्पो और सर्पविदों की ही भूमि है ।
वर्षों तक राज्य का नाम सुनते ही लोग समझते ये सर्पविद पूर्णतया जंगली लोग हैं | विश्व मे इस छवि से निकलने मे अगणित वर्ष लग गये |
एक बार चींवि राज्य में भ्रमण के लिए निकला । एक स्थान पर उसका वाहन रुका तो उसने एक समाचार पत्र लेने का प्रयास किया, कीमत तो कभी पता थी नहीं,
तो पांच सौ मुद्राएं दे दीं।
उसके प्रशंसकों को लगा कि कुमार अत्यंत दयालु हैं
चींवि आधुनिक युग का कर्ण बन गया।जैसे उसने अपने कवच और कुंडल ही उस बालक हो दे दिए हों | पारिवारिक इतिहास थोपने वाले थोपर जैसे इतिहासकार और महिषियों ने चींवि को राष्ट्रीय दानवीर बना देने मे कसर नही छोड़ी |
चींवि को अंतर्ध्यान होने की विशेष सिद्धि प्राप्त थी । वह जब चाहे जहाँ चाहे अंतर्ध्यान हो जाता और कहाँ पहुँचता यह सदा ही रहस्य बना रहता । एक दो बार राज्य से अंतर्ध्यान हो ननिहाल पहुँच जाता है ऐसी खबर उसने स्वयं ही फैलाई । शिक्षा दीक्षा और संस्कार ननिहाल से प्राप्त होने के कारण
अपनी नानी से विशेष प्रेम करता था ।
जीवन के अर्धशतक को पार करने के पश्चात भी विवाह न करने का रहस्य राज्य में कोई नहीं जानता था।ब्रह्मचारी वह था नहीं ।एक धींगा वंश के जानकार का मानना था की वह वंशवाद से परेशान था और वह राजा बनना नहीं चाहता। लोग उसे राजा बनाने के लिए बाध्य कर रहे थे।
वह भी राजकाज से दूर रहना चाहता था , अतः कोई रास्ता न देख उसने स्वयं ही अपने वंश के शासन काल का अंत करने का प्रण कर लिया था।
परंतु यह अश्वमेघ यज्ञ ? यह एक रहस्य था कि आखिर जो राज्य न संभालना चाहता था वह राज्य विस्तार क्यों करना चाहता था? यज्ञ की तैयारियां की गयी ।
राज्य की महिषियों ने मंगल गान किया , चींवि की जय जयकार से राज्य गूँज उठा ।
शुभ मुहूर्त में यज्ञ प्रारम्भ हुआ , राजकुमार यजमान बने । यज्ञ पशु को छोड़ दिया गया । पीछे पीछे राजकुमार सेना समेत यान पर निकल पड़े ।
यज्ञ पशु पहले हसीनापुर पहुँचा, जहाँ रीजक ने मार्जनीदण्ड से ही
यज्ञ पशु को पीट पीटकर भगा दिया और चींवि का यान ध्वस्त कर दिया । हसीनापुर के राज्य को हारा हुआ मानकर चींवि ने पुनः यज्ञ पशु को छोड़ दिया । यज्ञ पशु जहाँ जाता राजकुमार को हार का सामना करना पड़ता । धीरे धीरे धींगा साम्राज्य सिमटता गया ।
राजकुमार को लगा कि शायद हार के लिए उन्हें लोग दोषी समझते हैं । वह ये तो नहीं चाहता था । वह चुपचाप सब समाप्त कर निकल जाना चाहता था । किंतु उसका रहस्य अब खुलने लगा था ।वह हारना भी चाहता था और दोष भी लेना नहीं चाहता था । वैसे भी अभी तक की किसी हार पर उसको किसी ने दोष नहीं दिया था ।
कभी यज्ञपशु को दोष दिया जाता । कभी राजकुमार के यान को । कभी दोष लेने राज्य की महिषियाँ प्राण न्योछावर करने आ जाती कभी श्रेष्ठि स्वयं राजकुमार के चरणों में बिछ जाते । चींवि के सैनिक कुर्बानी दे देते ।मंत्री आत्मघात कर लेते पर राजवंश पर दोष नहीं आने देते ।
कभी पराजय को नैतिक विजय घोषित कर उत्सव मनाते । इतनी पराजयों के पश्चात भी चींवि उनकी दृष्टि में महानायक था , अविजित था । चींवि अजेय बनकर कही भी जाते और अपनी विजय गाथा सुनाते । कभी कहते किसी नगर को स्वर्ग बना देंगे , कभी कहते स्वर्ग कैसे बनेगा ये उनसे न पूछा जाये ।
क्या सोचकर नगर को स्वर्ग बनाने की बात करते यह तो उनका भाषण लिखने वाला ही जानता ।
यहाँ अश्वमेघ यज्ञ चल ही रहा था कि जम्बूदीप के केंद्र में सत्ता परिवर्तन हो गया और ढींगा वंश विपक्ष में जा बैठा । अब चींवि छद्म सम्राट से विपक्ष की ओर से सिंहासन के दावेदार बन गए |
धींगा वंश के विश्वासपात्रों में नैराश्य था, वे सभी अपना साम्राज्य नष्ट होते देख दुखी होते । अब इनके हाथों में कुछ प्रांत ही बचे थे ।पर पराजय ने तो जैसे चींवि से गंधर्व विवाह ही कर लिया था | जहाँ जाता पराजय उसके साथ चलती | कुल बीस प्रांत हार चुकने के बाद जब धींगा वंश का
शासन लगभग समाप्त हो गया, समय आ गया था कि असफलताओं का एक आंकलन किया जाए | तब चींवि ने कबरी-अनल्या नामक छद्म भेष संस्था से पूछा कि उसका अश्वमेघ उल्टा क्यों हो गया वह दिग्विजय चाहता था परंतु उसका साम्राज्य सिमट क्यों गया | संस्था ने जो बताया वह चौंकाने वाला था |
मंत्री शून्यभट्ट ने यज्ञ से पूर्व एक विचार प्रस्तुत किया था - कुछ सप्ताह पूर्व एक प्रांत में एक अश्व की मृत्यु से राज्य में संकटजनक स्थिति आ गयी थी । अतः अश्व का प्रयोग न किया जाए । सड़को पर अश्व का निकलना सुरक्षित भी नहीं है, कोई अन्य उपाय निकाला जाये ।
शून्यभट्ट ने कहा कि जब शासन करने के लिए छद्म शासक का प्रयोग किया जा सकता है तब अश्वमेघ के लिए छद्मअश्व का प्रयोग नहीं हो सकता?
तब राजकुमार की अश्वशाला संभालने वाले विश्वासपात्र नजुरकाल्लिमन् ने कहा हम एक रासभ को अश्व की भाँति श्रृंगार कर तैयार करते हैं और वही हमारा यज्ञ पशु होगा।
कही सड़कों पर विचरण करेगा और राजकुमार स्वयं उसके साथ दिग्विजय को निकलें |
इस प्रकार शून्यभट्ट और नजुरकाल्लिमन् ने मिलकर एक षड्यंत्र रचकर एक रासभ का शृंगार कर चींवि को "यह अश्व है" कहकर दे दिया | और रासभ भूरिकर्ण यज्ञपशु बन कर चुका था |
और जब एक बार राजकुमार ने कहा की यह अश्व है तब कोई और कैसे मान सकता था कि वा अश्व नही है | भूरिकर्ण दिग्विजय के लिए छोड़ दिया गया । पीछे पीछे राजकुमार सेना समेत खरयान पर ही निकल पड़े ।
कबरी-अनल्या नामक छद्म भेष संस्था ने समझाया - अश्वमेघ में अश्व ही छोड़ना चाहिए ।
रासभ का श्रृंगार करके छद्म अश्व बना तो सकते हैं, किन्तु उससे दिग्विजय प्राप्त नहीं की सकती ।
भूरिकर्ण दंडकारण्य के दक्षिण की ओर बढ़ा । यह धींगा साम्राज्य का प्रत्यक्ष आधिपत्य वाला अंतिम छोर था । यह प्रांत हाथ से जाने से धींगा वंश को बड़ा आघात लग सकता था ।
शून्यभट्ट ने चींवि को फिर एक उपाय बताया था - बेन्डाकलुरु के मध्य
खड़े होकर बचाओ बचाओ चिल्लाना और मस्तिष्क के शून्य मे ग्रीष्मकालीन अवकाश के लिए अंतरध्यान हो पाने के सुख रखना |
यज्ञपशु प्रांत में प्रवेश कर चुका था । राजकुमार का खरयान राज्य के केंद्र में खड़ा था ।
और राजकुमार रैया-सैंया-भैया-सरैया जाने क्या क्या बड़बड़ा रहे थे और अंको के चाणक्य हशा ने राजकुमार को उसकी सेना समेत प्रांत के बीच में ही घेर लिया था ।
वे अब भी अपनी वास्तविक इच्छा अर्थात राजकाज छोड़ देने में रूचि रखते थे । पर अश्वमेघ अभी चल ही रहा था ।
उन्हें यज्ञ का संचालन अंतिम क्षण तक करना था।पीछे हटने का कोई रास्ता नही था।यही उनके बच निकलने का रास्ता था।
राजकुमार ने एक अभियान छेड़ा है #SaveConstitution नाम से।जिसमे वे विधान बचाओ के नाम पर स्वयं को बचाने का प्रयास कर रहे हैं।परिणाम अखंड अनंत अनमोल शून्य है यह सर्वविदित है
वैसे तो हमारे यहाँ कई टोलियां हैं, लेकिन एक विशेष टोली है चौधरियों की । ये कुछ ख़ास लोग हैं जिनका काम लोगों के झगडे सुलझाना और विवादों को समाप्त करना है ।
इन चौधरियों की बड़ी इज्जत है ।
सत्ता किसी की भी हो पहलवानों की या लंबरदारों की या लंबरदारों के संरक्षण में पंच बने रंगा- बिल्ला की लेकिन चलती केवल चौधरियों की है।
कहते हैं अंग्रेजों के ज़माने में जब अंग्रेजों को लगा कि भारत के लोग तो गंवार हैं।अपने झगडे आपस में लड़ मर के सुलझा लेते हैं।
पंचायत का जो फैसला होता वह झगडे को येन केन प्रकारेण सुलझा ही देता ।
अंग्रेजों ने सोचा कि भाई ऐसे कैसे !
तब उन्होंने पहले कुछ विलायती मीलार्ड बुलवाये और उलझे झगडे सुलगाने की और सुलझे झगडे उलझाने की नई व्यवस्था लागू की ।
जब आपके आस पास 18-19 वर्ष के हँसते खेलते बच्चे को हृदयाघात से प्राण गंवाते होते देखते हैं,तब महसूस होता है कुछ गलत अवश्य है।
जब उस बच्चे की मृत्यु का समाचार सुनकर उसी की आयु का उसका मित्र दिवंगत हो जाता है तब बहुत आश्चर्य होता है।
इतनी गहन मित्रता देखने में कम आती है किन्तु इसमें एक चिंता का विषय यह है कि प्रकृति ने हमारी आने वाली पीढ़ी पर भभव डालना शुरू कर दिया है । और हमारी नई पीढ़ी में जीवन की चुनौतियों और दुःख को सहन करने की क्षमता कम होती जा रही है ।
हमारी शिक्षा व्यवस्था आत्मबल विकसित नहीं करती, परिस्थितयों का किस प्रकार सामना करना चाहिए यह भी नहीं बताती । शिक्षा व्यवस्था प्रेशर बनती है और बस एक रेस की तरह सबको उसमे दौड़ा देती है ।
मानसिक रुप से आगामी चुनौतियों के लिए बच्चों को तैयार करना शिक्षा का अंग होना चाहिए ।
मीडियारण्य में एक बार ऋषि पोलक अपने अट्ठासी हज़ार पोलस्टर शिष्यों के साथ एग्जिट-पोल नामक महायज्ञ कर रहे थे| तब एक जिज्ञासु शिष्य ने पोलक ऋषि से प्रश्न किया, हे ऋषि श्रेष्ठ -
यह पोल क्या है और यह किस प्रकार किया जाता है?
पोल के क्या भेद हैं? #ExitPolls #ExitPoll
पोल किसे करना चाहिए और पोल करने से क्या लाभ होता है?
पोल को करने की शास्त्रोक्त विधि क्या है और इसे कब किया जा सकता है?
ऋषि पोलक प्रश्न सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले - हे जिज्ञासु आपने यह उत्तम प्रश्न किया है अतः अब मैं पोल की कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ ।
एक बार भगवन सत्ताधीश अपने आसन पर सुखपूर्वक विराजमान थे । सरकारी तंत्र और परियोजनाओं के कमीशन से उत्पन्न लक्ष्मी उनकी चरण सेवा कर रही थी ।
सेवकादि फलेक्षु उनका स्तुतिगान कर रहे थे । कोमल आसान और सेवा से प्रसन्न सत्ताधीश भोगनिद्रा में मग्न थे ।
स्थान - श्रेष्ठि पदीजरा का मंत्रणा कक्ष |
समय - रात्रि का तृतीय प्रहर |
मंत्रणा गहन थी , विषय गूढ़ था | चर्चा का विषय था कि अगर दक्षिण में युवराज की पराजय होती है तो उन्हें किस प्रकार बचाया जा सके |
किस प्रकार उनकी अवश्यंभावी पराजय को विजय के रूप में परिवर्तित कर के दर्शाया जाए |
युवराज का खरमेघ यज्ञ समस्त जबूद्वीप को हार चुका था और दक्षिण में आसार कुछ ऐसे ही थे | मंत्रणाकक्ष में श्रेष्ठि पदीजरा मोदी शमन मन्त्र का अखंड जाप कर रहे थे |
विशेष रूप से महिषी गारिकसा के साथ आज मोहतरमा तदखारब के साथ महाश्रेष्ठि आलुकपूडी अपने भृत्य लहुरा-लवंक के साथ पधारे थे | जातज्ञ बीशर और वींघसा भी उपस्थित थे| आलुकपूडी अपनी आलू जैसी देहयष्टि और पूरी जैसी चिकने चुपडे समाचार निर्मित करने के लिए प्रसिद्द थे |
ये देश इसलिए है क्योंकि चच्चा गुलाबीलाल अलहाबादी थे , गुलाबीलाल न होते तो भारत नहीं होता | दरअसल भारत की खोज तो चच्चा गुलाबीलाल ने ही की थी | उससे पहले तो भारत में केवल सांप और सपेरे ही रहते थे | पर भारत खुजा हुआ नहीं था |
गुलाबीलाल को सेवक बनने का बड़ा शौक था, इसीलिए उन्होंने अपना नाम गुलाबदास रखवा लिया था | गुलाबी तबीयत के मालिक गुलाबदास की आँखें भी गुलाबी थी | जिनसे प्रभावित होकर एक शायर ने "गुलाबी आखें जो तेरी देखीं" नामक गीत लिखा |
चच्चा दरअसल बड़े सेवक थे ऐसा उनके एक वंशज पत्रकार जातपूछे ने बताया | पत्रकार जातपूछे वास्तव में प्रवक्ता थे, प्रवक्ता से कभी कभी पत्रकार का भेष धर लेते थे | भाषा की लच्छेदारी में जातपूछे का कोई जवाब नहीं था | कभी माइक लेकर सड़क पर निकल पड़ते ,कभी सड़क इनपर निकल पड़ती |
भरोसा बड़ी चीज़ है बाबू |पहले तो होता नहीं, और हो जाये तो टूटता नहीं और हो के टूट जाये तो कभी जुड़ता नहीं |
जहाँ भरोसा होता है न बाबू,वहां जिंदगी बड़ी आसानी से निकल जाती है | बड़ी से बड़ी मुश्किलों के पहाड़ चूर हो जाते हैं |
......
लेकिन भरोसा ऐसी चीज़ है बाबू कि होता नहीं है, आधों को तो खुद पे नहीं होता और आधों को दूसरों पे |
उन्नीस सौ पैंतालीस में तो किसी को भरोसा था नहीं कि भारत कभी आज़ाद होगा, और जब सैतालीस में जब हो भी गया तो भी आज तक सरकारें भरोसा नहीं दिला पाईं कि तुम आजाद हो बाबू |
आजादी वैसे तो विदेशों में इलाज़ कराती रही , हवाईजहाज में जन्मदिन मानती रही , दुबई में शॉपिंग करती रही | आजादी फेमनिष्ठ होकर फेम पाने में लगी रही , लिबरल होकर लपराती रही | आज़ादी ही थी जो सेक्युलर होकर दिन रात माइक पर चीखती |