१) हर मनुष्य के मानस में यह प्रश्न कभी न कभी अवश्य कौंधता है कि मृत्यु के उपरान्त क्या? क्या नया जीवन होगा? यदि हाँ तो कब कैसे? यदि नहीं तो फिर क्या? कौन है नियंता आगे के मार्ग का? कौन पथप्रदर्शक? इन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें ‘गरुड पुराण’ में मिलते हैं|
२) ‘गरुड़ पुराण’ हिन्दू धर्म के मुख्य पुराणों में गिना जाता है| इसके रचयिता हैं ऋषि वेद व्यास व देवता स्वयं भगवान् विष्णु| जीवन-मृत्यु के रहस्य व कर्म-फल के नियम कहे हैं इस ग्रन्थ में| चाहे हम इसे नित्य न पढ़ें किन्तु परिवार में मृत्यु जोने पर इसके पाठ का विधान है|
३ ) कैसे होती है मृत्यु? मृत्यु के कुछ घंटे पूर्व पैर ठंडे हो जाते हैं, पैरों के नीचे स्थित भूमि-चक्र विलगित हो जाते हैं | जब मृत्युकाल आता है, तो यमदूत वा यम स्वयं आत्मा के मार्गदर्शन हेतु प्रकटते हैं | आत्मा का शरीर से नाता टूट जाता है; वह ऊपर की ओर गमन करता है |
४ ) जिनको शरीर से अधिक प्रेम हो उनका आत्मा शरीर में भटकता रहता है; उनके अंगों में मृत्यु के उपरान्त भी हलचल होती दिखाई देती है | अंततः यमदूत उसे खींच कर बाहर निकालते हैं| इस स्थिति में आत्मा वहां स्थित जनों के विचारों को सुन सकता है|
५) किन्तु आत्मा को कोई न देख सकता है न सुन सकता है| आत्मा शरीर से १0-१२ फुट ऊपर मंडराता रहता है| वह जानता है कि शरीर में लौटना सम्भव नहीं फिर भी जब तक चिता में शरीर जलता नहीं वह आस-पास भटकता रहता है| अपने सम्बन्धियों का वार्तालाप/विलाप इत्यादि सुनता है |
६ ) दाहकर्म के उपरान्त उसे निश्चय हो जाता है कि देह से नाता समाप्त हुआ; अब वह पूर्णतया स्वतंत्र है| विचार मात्र से वह कहीं भी आ-जा सकता है| ७ दिन तक वह अपने प्रिय जनों/स्थानों इत्यादि में घूमता रहता है| जैसे कि तिजौरी के पास; प्रातः भ्रमण का स्थान; बच्चों का कमरा |
७ ) सात दिन उपरान्त, आत्मा इस लोक को त्याग परलोक को गमन करता है | सबसे पहले एक कन्दरा को पार करना है, जिसमें ५ दिन तक लग सकते हैं| इसी कारण मृत्यु के बाद के १२ दिन अति महत्वपूर्ण हैं| इनमें आत्मा की शान्ति/मुक्ति/क्षमा हेतु प्रार्थना व श्राद्ध कर्म करने चाहियें |
८ ) इस समय परिजनों द्वारा किये गए शुभ कर्म आत्मा की आगे की यात्रा को सुगम बनाते हैं | इस अवधि के अंत में किये गए यज्ञ इत्यादि से आत्मा का अपने पूर्वजों से मिलन होता है| पूर्व मृत सारे पूर्वज/मित्र आदि आ कर आत्मा की अगवाई करते हैं, उसे गले लगाते हैं |
९ ) इसके उपरान्त आत्मा अपने मार्गदर्शकों के पीछे चलता हुआ उस स्थान पर पहुँचता है जहां वह अपने अभी अभी पूर्ण हुए जन्म के कर्मों का लेखा-जोखा करता है| सांकेतिक रूप से यह कार्य यमराज का है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो आत्मा स्वयं अपना निर्णायक है|
१० ) देह के अहम भाव से परे वह निरपेक्ष दृष्टि से अपने कर्मों को देखता है, अपना दंड/पारितोषिक निर्धारित करता है | मोक्ष के अंतिम लक्ष्य के प्रति अपनी प्रगति सुनिश्चित करने हेतु आत्मा अपना मार्ग प्रशस्त करता है | एक एक क्षण का विवरण उसके सामने होता है|
११) सम्बन्धी/ परिचारक/मित्र/शत्रु के विचार; उनके मन में उसके प्रति सद्भाव/दुर्भाव अब आत्मा को ज्ञात हैं| यह ज्ञान उसके स्वयं के न्याय में एक महत्वपूर्ण भाग निभाता है| इस कारण आत्मा की शान्ति हेतु जीवन में जिन से भी सम्पर्क रहा हो उनकी क्षमा आवश्यक है |
१२ ) पाप/पुण्य का पूरा लेखा जोखा करने के उपरान्त आत्मा यात्रा में आगे बढ़ता है| यदि पापों की तीव्रता अधिक थी तो प्रेत योनि पाकर नर्क के कष्ट भोगता है| यदि पुण्य अधिक हों तो देवता/पार्षद बन कर स्वर्ग/वैकुण्ठ इत्यादि लोकों में ऐश्वर्य/शान्ति का समय व्यतीत करता है|
१३) पिछले पाप-पुण्य ही उसकी अगली योनि निर्धारित करते हैं| मनुष्य योनि के अतिरिक्त जड़ चेतन सभी भोग योनियाँ कहलाती हैं जिनमें आत्मा अपने कर्मों का फल पाता है | इन योनियों में किये कर्मों का कोई फल नहीं, क्यूंकि उनमें बुद्धि नहीं, केवल स्वभाव ही कर्म का निर्धारक है|
१४) इन सब प्रकार के दंड/भोग के उपरान्त पुनः लौट कर वह मनुष्य योनि पाता है; उसे पुनः पाप/पुण्य अर्जित करने का अवसर प्राप्त होता है| इसी कारण संत जन कहते हैं मानव जन्म अनमोल है, इसे भोग-कर्मों में व्यर्थ न करके परमार्थ/ज्ञान/भक्ति के द्वारा पुण्यार्जन में लगाना चाहिए |
१५) जन्म के समय ग्रहों की स्थिति उसके आने वाले जीवन की द्योतक है, अतः बहुत सूक्ष्मता से आत्मा अगले जन्म का समय चुनता है| पुनर्जन्म के ४० दिन तक आत्मा को पूर्व जन्म का भास रहता है; हंसना रोना भी उसी पर निर्भर| उसके उपरान्त सब भूल कर वह नए जीवन में पदार्पण करता है |
१६ ) इसके अतिरिक्त 'गरुड़ पुराण' में भगवान विष्णु के २४ अवतारों का वर्णन है, जैसे कि 'श्रीमद्भागवत पुराण' में है। भक्तों की कथायों व सिद्ध-मन्त्रों का वर्णन है | फिर नीति-सार, आयुर्वेद, तीर्थ-माहात्म्य, श्राद्धविधि, दशावतार व सूर्य/चन्द्र वंश भी कहे है।
१७) 'गरुड़ पुराण' में सर्प/रत्न/मणि के लक्षण; ज्योतिष/समुद्र/धर्म शास्त्र, विनायक शान्ति, वर्णाश्रम व्यवस्था, व्रत-उपवास, अष्टांग-योग, पातिव्रत, जप-तप-पूजा विधान भी है। यह शुद्ध-सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य व इनके फलों पर भी विचार करता है।
१८) इस पुराण को दो भागों में देखते हैं। पहले भाग में विष्णु भक्ति/उपासना की विधियों का उल्लेख है तथा मृत्यु के उपरान्त प्राय: 'गरुड़ पुराण' के श्रवण का प्रावधान है। दूसरे भाग में 'प्रेतकल्प' का विस्तार से वर्णन करते हुए विभिन्न नरकों में जीव के पड़ने का वृत्तान्त है।
१९) इसमें मरने के बाद मनुष्य की क्या गति होती है, उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है, प्रेत योनि से मुक्त कैसे पाई जाती है, श्राद्ध/पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए व नरकों के दारुण दुख से कैसे छूट सकते हैं आदि विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन दिया है।
२०) इसके 'प्रेतकल्प' के ३५ अध्यायों में यमलोक, प्रेतलोक व प्रेत योनि प्राप्त होने के कारण, दान महिमा, प्रेत योनि से बचने के उपाय, अनुष्ठान/श्राद्ध कर्म आदि का वर्णन दिया है। मृत व्यक्ति के परिजन उसकी सद्गति/मोक्ष हेतु पुराण-विधान के अनुसार यज्ञ-दान-दक्षिणा देते हैं।
२१) 'गरुड़ पुराण' के दूसरे अध्याय में गरुड़ ने कहा है - हे केशव! यमलोक का मार्ग कैसे दुखदायी होता है। पापी लोग प्रेत बन वहाँ कैसे जाते हैं, मुझे बताइये। भगवान बोले- हे गरुड़! महान दुखकारी यममार्ग को मैं तुझे कहता हूँ, मेरा भक्त होने पर भी तुम काँप उठोगे।
२२) यममार्ग में वृक्ष की छाया नहीं, अन्न नहीं जल नहीं, वहाँ प्रलय काल के बारह सूर्य तपते हैं। उस मार्ग पर पापी कभी बर्फीली हवा से तडपता है, कभी कांटे चुभते हैं। कभी महाविषधर सर्प डसते हैं, कहीं अग्नि जलाती है, कहीं सिंह, व्याघ्र, भयंकर कुत्ते, कहीं बिच्छु खाते हैं।
२३) हे गरुड़, आगे 'असिपत्रवन' नरक है, जो २००० योजन तक कौवे, उल्लु, गीधों आदि से भरा है; सब ओर दावानल है। वहां जीव कहीं अंधे कुएं में कहीं पर्वत से गिरता है, कहीं छुरे की धार कहीं कीलों पर चलता है, कहीं घने अँधेरे में कहीं उग्र जल में कहीं जोंक-भरे कीचड़ में गिरता है।
२४ ) कहीं तपती बालू से धधकते ताम्रमय मार्ग, कहीं अंगारे, कहीं धुयाँ है। कहीं अंगार/तडित/शिला वृष्टि, कहीं रक्त/शस्त्र/गर्म जल/ खारे कीचड़ की वृष्टि है। कहीं मवाद/रक्त/विष्ठा से भरे तलाव हैं। मध्य में अत्यन्त उग्र व घोर 'वैतरणी नदी' बहती है जो देखने से ही दुखदायनी है।
२५) उसका भयकारी शोर है; सौ योजन तक पीब/रक्त भरी है। हड्डियों के तट हैं; विशाल घड़ियाल हैं। हे गरुड़! पापी को देख वह खौलते घी सम तप जाती है। उसमें तीक्ष्णमुखी भयानक कीड़े व वज्र चोंच वाले वृहत गीध हैं। इस नदी में गिरे पापी 'हे भाई', 'हा पुत्र', 'हा तात' कह रोते हैं।
२६) बिच्छुयों व सांपों से व्याप्त उस नदी में गिरे पापियों का रक्षक कोई नहीं। हज़ारों भंवरों में फंस पापी क्षण क्षण डूबते/उबरते हैं। कुछ पाश में बंधे; कुछ अंकुश से खींचे जाते हैं; कुछ कोओं द्वारा नोचे जाते हैं। उनके हाथ पैरों में जंजीरें व पीठ पर लोहे के भार होते हैं।
२७) इस वन में पापी जीव अत्यंत घोर यमदूतों द्वारा मुगदरों से पीटे जाते हुए रक्त वमन करते हैं व वमन किये रक्त को पीते हैं। इस प्रकार १७ दिन तक वायु वेग से चलते हुए १८वें दिन वह प्रेत सौम्यपुर में जाता है। हे गरुड़, पापी जीव इस प्रकार पापों का दंड पाता है।
२८) वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त करता है। प्रथम अवस्था में मानव को समस्त अच्छे-बुरे कर्मों का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है। दूसरी अवस्था में मृत्यु उपरान्त जीव ८४,००० योनियों में से किसी में कर्मानुसार जन्म लेता है। तीसरी अवस्था में वह स्वर्ग या नरक में जाता है।
२९) जिस प्रकार चौरासी लाख योनियाँ हैं, उसी प्रकार चौरासी लाख नरक भी हैं, जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। 'गरुड़ पुराण' ने इसी स्वर्ग-नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इनसे भयभीत व्यक्ति अधिक पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है।
३०) पर-सम्पत्ति हरण, मित्रद्रोह/विश्वासघात, ब्राह्मण/देव-सम्पत्ति हरण, स्त्री/बालक का संग्रहीत धन लेना, परस्त्री से व्यभिचार, निर्बल को सताना, ईश्वर को नकारना, कन्या का विक्रय, निर्दोष माता/बहन/संतान/स्त्री/ पुत्रबधु का त्याग, ये सब करने से प्रेत योनि अवश्य मिलती है।
३१ ) ऐसे व्यक्ति को जीते-जी अनेक रोग/कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृहकलह, ज्वर, कृषि की हानि, सन्तान-मृत्यु आदि से वह दुखी होता है अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है, जो धर्म का आचारण व नियमों को पालन नहीं करता व जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं।
३२) 'गरुड़ पुराण' में प्रेत योनि व नरक से बचने के उपाय भी दिए हैं। उनमें प्रमुख दान-दक्षिणा, पिण्डदान, श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं। इस प्रकार कर्मकाण्ड पर बल देने के उपरान्त 'गरुड़ पुराण' में ज्ञानी/सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकाण्ड के सद्गति पाने की विधि बताई है।
३३ ) पृथ्वी पर ४ प्रकार की आत्माएं कही हैं। एक जो अच्छाई/बुराई के भाव से परे हैं; ऐसी आत्माओं को पुनः जन्म लेने की आवश्यकता नहीं; वे जन्ममृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें संत/महात्मा कहते हैं। उनके लिए सब समान हैं; सबसे प्रेम होता है किसी के प्रति घृणा नहीं।
३४) दूसरे जो अच्छे/बुरे को समभाव देखते हैं वे भी भवबंधन से मुक्त हो जाते हैं। तीसरे लोग वो जिनमें अच्छाई/बुराई का मिश्रण होता है; वे मृत्यु के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ/शरीर को प्राप्त कर लेते हैं। चौथे वो पापी हैं जिनका वर्णन ऊपर हुआ, जो नर्क/प्रेतयोनि पाते हैं।
३५) गरुडपुराण की समस्त कथाओं/उपदेशों का सार है कि आसक्ति को त्याग वैराग्य की ओर प्रवृत्त होवे व सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिये एकमात्र परमात्मा की शरण में जावे। यह लक्ष्यप्राप्ति कर्म/ज्ञान/भक्ति द्वारा कैसे हो, यह व्याख्या भी इस ग्रन्थ में है।
३६ ) कुछ लोगों में धारणा है कि इस गरुडपुराण को घर में नहीं रखना चाहिये। वे केवल श्राद्ध आदि में ही इसकी कथा सुनते हैं। यह धारणा अत्यन्त भ्रामक है, जो मनुष्य गरुडपुराण को कभी भी सुनता/पढता/अनुसरण करता है; वह यम की यातना से मुक्त हो स्वर्ग प्राप्त करता है।
गरुणपुराण का श्रवणरूपी यह सुंदर कृत्य पितरों को मुक्ति प्रदान करनेवाला, पुत्रविषयक अभिलाषा को पूर्ण करनेवाला तथा लोक व परलोक दोनों में सुख प्रदान करनेवाला है।
४० ) तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्रोतव्यं गारुडं किल।
धर्मार्थकाममोक्षाणां दायकं दु:खनाशनम्।।
इसलिये समस्त गरुड़ पुराण को विशेष प्रयत्न से अवश्य ही सुनना चाहिये; यह दुःख का नाश करने वाला व धर्म/अर्थ/काम/मोक्ष को प्रदान करने वाला उत्तम ग्रन्थ है।
Today is Vamana Dwadshi, the day Bhagwan Vishnu incarnated as a midget brahmin to tame the inflated ego of King Bali, grandson of Bhakta Prahlad and the erstwhile ruler of the three lokas. Read the story in the poetry thread that follows.
Mudras are specific hand positions used in Yogic tradition to facilitate smooth flow of various life energies through the human body. The word Mudra literally means ‘Seal’ (symbol) in Sanskrit. In Yoga each Mudra is a Seal of one specific life force.
Universe is made of 5 elements, and each finger represents one of them. The thumb represents Fire (universal consciousness); the index finger Air (individual consciousness); the middle finger Akasha (connection); the ring finger Earth (life); the little finger Water (flow).
When the 5 elements in our body lose their mutual balance, not only do we lose spiritual and emotional equilibrium; on the physical plane too various ailments can arise as a result. Mudras can help us restore that balance and gain direct benefits in all 3 spheres.
Our biggest excuse is when so many translations are available of every scripture that we ever want to read then why take up the extra load?
What we forget is much is lost in translation n each translation is affected by the translator’s individual understanding of the text.
Our scriptures are multi-layered. Every time we read, we may open another layer. But these layers are lost in translation n we read same layer each time, the one that translator opened. If it isnt in sync with our current spiritual stage, then we may miss the point entirely!
Why does gotra of a daughter change when married? Is there any logic behind it?
Infact there is an amazing genetical system we follow through Gotra Gyan.
The word GOTRA is formed by combination 2 sanskrit words Gau (cow) & Trahi (shed). So gotra basically means cowshed.
Gotra is like cowshed protecting a particular male lineage. We identify our male lineage/gotra as descendants of the 8 great Rishi (Saptarishi + Bharadwaj rishi). All other gotra evolved from these only.
Each human carries 23 pairs of chromosomes each with one from each parent.
महिलायों के प्रति दुष्कर्मों में बढ़ोतरी देख कर बार बार ध्यान जाता है इतिहास की ओर जहाँ ऐसी दुर्गति से बचने हेतु हमारी राजपूत मातायों ने हँसते हँसते मृत्यु वरी, जौहर किया था। महारानी पद्मिनी की प्रसिद्ध गाथा के माध्यम से इस दुष्कर प्रथा का वर्णन कर रही हूँ।
जून ८ को बन्दा बैरागी का शहीदी दिवस मनाया गया. दशमेश गुरु के विशेष सिख थे बन्दा जी, उन्होंने गुरु महाराज के चरण चिन्हों पर चलते हुए अपने प्राणों व अपने परिवार को धर्म की वेदी पर बलिदान किया, इस कविता में उन्हीं की शौर्य कथा कहने का प्रयास किया है, 👇👇